Thursday, October 22, 2009

प्रेम तो समर्पण है मालकियत नहीं !


प्रेम में ईष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है। ईष्या सूचक है प्रेम के अभाव की। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसा दीया जले और अंधेरा हो। दीया
जले तो अंधेरा होना नहीं चाहिए। अंधेरा का न हो जाना ही दीए के जलने का प्रमाण है।र् ईष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईष्या अंधेरा है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना। जब तकर् ईष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं।
तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना मत। असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन
तुम इस सत्य को समझ पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। प्रेम तो सेवाहै,र् ईष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।
किसिने मुझे पूछा है- प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है? लेकिन प्रश्न पूछने वाले की तकलीफ मैं समझ सकता हूँ। सौ में निन्यानवे मौके पर जिस प्रेम को हम जानते हैं वह ईर्षया का ही दूसरा नाम है। हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़ककर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिध्द हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं। तो होती तोर् ईष्या ही है, उसे हम कहते प्रेम हैं। ऐसे प्रेम के नाम सेर् ईष्या चलती है। होती तो घृणा ही है, कहते हम प्रेम हैं। होता कुछ और ही है। एक देवी ने और प्रश्न पूछा है। पूछा है कि 'मैं सूफी ध्यान नहीं कर पाती और न मैं अपने पति को सूफी ध्यान करने दे रही हूँ। क्योंकि सूफी ध्यान में दूसरे व्यक्तियों की ऑंखों में ऑंखें डाल कर देखना होता है। वहाँ स्त्रियाँ भी हैं। और पति अगर किसी स्त्री की ऑंख में ऑंख डाल कर देखे और कुछ से कुछ हो जाए तो मेरा क्या होगा? और वैसे भी पति से मेरी यादा बनती नहीं है।' जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही
व्यवस्था है - सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। कहीं पति छूट जाए तो घबराहट है। पति को पकड़ कर मकान मिल गया होगा, धन मिल गया होगा- जीवन को एक ढाँचा मिल गया
है। इसी ढाँचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढाँचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा के मिलने का
और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा। भय और प्रेम साथ-साथ हो कैसे सकते हैं? इतना भय कि पति कहीं किसी स्त्री की ऑंख में न ऑंख डाल कर
देख लें! तो फिर प्रेम घटा ही नहीं है। फिर तुम्हारी ऑंख में ऑंख डालकर पति ने नहीं देखा और न तुमने पति की ऑंख में ऑंख डालकर देखा है। न तुम्हें पति में परमात्मा दिखाई
पड़ा है, न पति को तुममें परमात्मा दिखाई पड़ा है। तो यह जो संबंध है, इसको प्रेम का संबंध कहोगे?
अगर प्रेम घटे तो भय विसर्जित हो जाता है। तब पति सारी दुनिय की स्त्रियों की ऑंख में ऑंख डाल कर देखता रहे तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। हर स्त्री की ऑंख में तुम्हीं को पा
लेगा। हर स्त्री की ऑंख में तुम्हारी ही ऑंख मिल जाएगी, क्योंकि हर स्त्री तुम्हारी ही प्रतिबिंब हो जाएगी। हर स्त्री को देख कर तुम्हारी ही याद आ जाएगी। लेकिन प्रेम तो घटता नहीं;
किसी तरह संभाले है अपने को। ऐसे ही तुम्हारे सब प्रेम के संबंध हैं। एक-दूसरे पर पहरा है। एक-दूसरे के साथ दुश्मनी है, प्रेम कहाँ! प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है।
प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रध्दा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रध्दा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रध्दा न कर सके, भरोसा न कर
सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं।र् ईष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे
फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो। इसलिए जब मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रेम सत्य तक जाने का मार्ग बन सकता है तो तुम मेरी बात को
सुन तो लेते हो लेकिन भरोसा नहीं आता। क्योंकि तुम प्रेम को भलीभांति जानते हौ। उसी प्रेम के कारण तुम्हारा जीवन नरक में पड़ा है। अगर मैं इसी प्रेम की बात कर रहा हूँ तो
निश्चित ही मैं गलत बात कर रहा हूँ। मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूँ- उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है,
तुम्हारी संभावना है।
और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन
रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे। प्रेम तो फूल है।.

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